सोमवार, 10 नवंबर 2008

संवाद : सतीश गुजराल

एक ही छत के नीचे...कैनवास और शिल्प में...

सतीश गुजराल

की औरतें

प्रखर पेंटर एवं शिल्पकार सतीश गुजराल से
टिल्लन रिछारिया का संवाद


प्रकाशन-तिथि : राट्रीय सहारा / उमंग /रविवार,१२ मार्च १९९५

सुंदर बाग़ - बागीचों में , जंगल - वादियों में इन दिनों प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर वसंत ब्रश फेर रहा है _ पत्थर तराश रहा है _ उसे मांसल बना रहा , पंख दे रहा है __लगता है प्रकृति की लीला को चुपके-चुपके सतीश गुजराल ने देख लिया है __आकर पाने को बैचैन ...बेडौल पत्थर ...यौवन की आग से तप रहे हैं __एक मद्धम आंच है __जब रु-ब-रु हैं आप कैनवास पर उतरी गुजराल की औरतों के ।

शिल्प और कैनवास जब आईने बन जायें एक दूसरे के लिए ...एक ही छत के नीचे _तो दोनों के बीच खड़े आप अपनी मनःस्थति के कितने चित्र देखा सकते हैं ...! कितने ही__

परत-दर-परत ...
खुलती अनावृत औरत
जो कहीं अपनी ही
केशराशि के पर्दे में है
जो कहीं अपने
समग्र देह -दर्शन के साथ
अंग-अंग पखेरू है
जो कहीं _ दग्ध है , बिद्ध है ,तप्त है
जो कहीं _ नख-शिख संगीत है
रंग मैं डूबा राग है
जो कहीं _ काम का प्रपात है
कहीं उन्मुक्त , कहीं व्यक्त , कहीं अव्यक्त ...
अपनी ही अनुगामिनी ...
बांचा - अबांचा __महाकाव्य है !

यूँ तो पहाड़ से लुढ़के हर पत्थर में आग होती है ...और हर पत्थर पर रंग चढ़ते हैं ...तराश अपनी शायरी भी लिखती है ...पर ये कुदरत का करिश्मा ही तो है कि कुछ पत्थरों को तराश और रंगत ऐसी मिलती है कि वे मजहबी जूनून के साथ पूजते हैं और इंसानियत को लहुलुहान का सबब बनते हैं __और कुछ पत्थर ऐसे संगतराश की गोद से गिरते हैं __जो फूल -सा ...फूल से भी ज्यादा कोमल बन कर खिलते हैं...और इंसानियत को सरसब्ज करते हैं .

क्या बात हो जब कोई संगतराश पत्थर को औरत बना दे...और वो इतनी कोमल लगे कि आपका भी मन करे कि बाहों में भर लें __लेकिन लगे कि कहीं कोई देख न ले ...लाज लगे __तो आंखों में भर लें ! ... कहीं - कहीं गुजराल भी लजाये हैं अपनी औरतों से __जब वे एक झटके से सामने आगयीं हैं ...सब कुछ दरसाती ...तो थोड़ा लजाकर और थोड़ी हिम्मत कर कलाकार उनके ही बालों से उनके उभार को ढांप दिया है __पर जब वक्ष __पखेरू के प्राण और पंख पा जाएं तो __तो वे बालों के झुरमुट से झांक उठे हैं...पंख फडफडाते हुए ... कहीं बृषभ अनुरक्त है...तो कहीं अश्व औरत के पाँव के अंगूठे से बंधा ... मुग्ध __भांपिये ... शायद आप ही का विराट हो मुग्ध - भाव मैं .

पुरूष का सारा शौर्य अभिसार की बेला में शायद ऐसे ही व्यक्त होता है __काम की ... प्रचंड आग की गोद में पुरूष का यूँ सुकूंपरस्त अंदाज में दुबकना __बखूबी व्यक्त है ।

औरत जो यहाँ पत्थरों में __वो आबनूसी रंग में अपनी मांसलता से अभिभूत करती है ...और जो अपनी चमक और रंग के साथ आलोकित है ... वो बखूबी पढी जा रही है __खुरदुरी है __ बावजूद अपने कच्चे माल के __ औरत __ अपने पक्के अंदाज में है !__मन की उमंगों और अनुभूतियों की गहराइयों में डूबे मनोभावों के साथ भी ...वो डूबी-डूबी सी नहीं __मछली - सी चमक - दमक भरी है __साफ़ पानी में ...चमकीली ... मछली __पकडिये !

कनाट - प्लेस के ए - वन ब्लाक की _आर्ट - टुडे गैलरी _ की खिड़कियों से झांकती गुजराल साहब की औरतें __हाथ पकड़ कर खींचतीं हैं __जिस शाम हम इस जोड़ - जुगत में थे कि सर्जक बताये अपनी इन ताजा - तरीन औरतों का जीवन - वृत्त __उस दिन २२ फरवरी १९९५ की शाम तक सूरज देवता नदारत थे ... आसमान बादलों भरा ...सुबह ठंडी हवाएँ थीं ...और दोपहर से ही रिमझिम फुहारों का सिलसिला था __औरतें आराम से थीं __अपनी दुनिया में छिटपुट दर्शकों को दिखती - छिपती ...झटके से देखो तो कैनवास पर औरतें ठिठक जातीं ...थोड़ा रुको तो लगता कि वे आश्वस्त हुईं ...और बतियाने लगतीं __बाएँ से चलें तो पहले और दूसरे कोने तक की औरतें ...अपनी बात फुसफुसा कर कहतीं मिलीं ... तीसरे कोने पर फुसफुसाहट नहीं __देह की टंकार है __औरत - देह जितनी कसी जा सकती ...इतनी कि तार टूटे नहीं ...कसी गयी है __उजास फूट रहा है पूरी देह से ....!__कोरी आंखों से देखें तो औरत की देह सफ़ेद है और खुरदुरी ... देह को कम ही रंग छुलाया है गुजराल ने __मनोभावों को रंग देने के लिए ज़रूर मुखाकृति को रंग - स्पर्श है __फ़िर भी ... पूरी देह जैसे __दहक की लोहित - आभा से भरी अपने पुरूष को अपने में आबध्द किए , अपने में दुबकाए ...अपने विराट में एकाकार किए __और ' वो ' अपने समूचे अस्तित्व और चेतना के साथ तिरोहित होता हुआ ! ! !
कला की दुनिया में क्यों __समग्र मानवी -चेतना में __प्रकृति और पुरूष के मौन और मुखर संवाद जारी रहेंगे__शब्द , शिल्प , रंग ...बोलते रहेंगे __

जब गुजराल साहब से मुखातिब हुए ...

आपके कैनवास पर कैसी औरतें उतरीं हैं ?
सवाल - जवाब आगे पढिये > > >

कोई टिप्पणी नहीं: